अतिरिक्त >> दान देने की कला दान देने की कलाआर. एम. लाला
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लगभग हर व्यक्ति कभी-न-कभी दान देने के आनन्द का अनुभव करता है। जरूरतमन्दों को पैसों से मदद, अन्य तरीकों से मदद या स्वयं को प्रस्तुत कर मदद और उनकी समस्या को सुनना या उनकी समस्या के समाधान में मदद करना...इस पुस्तक का मकसद इस विचार को बढ़ावा देना है न कि एक लोकोपकारी संस्था को स्थापित करना...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भूमिका
भारतीय व्यापार में लोकोपकार की परम्परा काफ़ी बहुमूल्य है किन्तु इस किताब का विषय ‘सफल दान’ आजकल की उन्नति है। लोकोपकार का यह रूप 19वीं सदी के उत्तरार्ध में आया जब एन्ड्रयू कारनेगी और जमशेदजी टाटा जैसे व्यापरियों ने अपनी विशाल सम्पत्ति को ट्रस्ट में डालने का निर्णय लिया। ये आधुनिक उद्योग द्वारा उत्पादित पैसे थे। इन ट्रस्ट और संस्था का मकसद समाज के चुनौतीपूर्ण समस्याओं का समाधान करना था जिसके बारे में छोटे स्तर के संस्थान सोच भी नहीं सकते।
रुस्सी लाला की पुस्तकें छोटी होती हैं लेकिन इनकी हर किताब की तरह ये भी बहुत दिलचस्प है। वे दान देने के उद्भव और विकास को लेकर लिखते हुए उसके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य के साथ सर दोराबजी ट्रस्ट के प्रमुख के रूप में अपने अनुभवों को भी आधार बनाते हैं। विशेषकर तब जब वे जे०आर०डी० टाटा और अज़ीम प्रेमजी जैसे सहिष्णु व्यावसायिक व्यक्तित्वों के बारे में लिखते हैं जिनको वे व्यक्तिगत तौर पर जानते हैं।
उचित ही है कि इस किताब के व्यक्तित्व वाले खण्ड की शुरुआत एक समकालीन संस्था ‘द बिल एण्ड मेलिण्डा गेट्स फाउण्डेशन’ की कहानी से हुई है। बिल गेट्स और वॉरेन बफ़ेट द्वारा शुरू की गई यह संस्था विश्व की सबसे धनी निजी संस्था है। जिसका मकसद है सुविधाहीन लोगों में फैले बीमारियों जैसे मलेरिया, टी०बी० को विश्वव्यापी रूप से हटाने की कोशिश करना, क्योंकि ‘हर जीवन की कीमत समान है।
रुस्सी ने इस बात को सामने लाने का काम किया है कि उन सभी व्यवसायिक व्यक्तित्वों ने उसी ऊर्जा और सोच के साथ रचनात्मक फ़िलॉसफी का अभ्यास किया है जैसा कि उन्होंने अपने व्यापार में किया था। इनका मकसद केवल अपार सम्पत्ति जमा करना नहीं बल्कि उनका उपयोग समाज के लिए करना है। इस सन्देश को दुनिया के सारे धनवानों में फैलाना ज़रूरी है। ताकि वो इसे अपनाये। ख़ासकर इस समय सारी दुनिया में असमानता के बढ़ने के कारण पूँजीपति और पूँजीवाद निम्न स्तर पर है।
रुस्सी कहते हैं इस किताब का उद्देश्य उन लोगों को प्रेरित करना है जो कारनेगी, जमशेदजी टाटा और उनके पुत्र की तरह धनवान हैं ।
मुझे आशा है कि इस पुस्तक को बहुत सारे पाठक मिलेंगे।
रुस्सी लाला की पुस्तकें छोटी होती हैं लेकिन इनकी हर किताब की तरह ये भी बहुत दिलचस्प है। वे दान देने के उद्भव और विकास को लेकर लिखते हुए उसके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य के साथ सर दोराबजी ट्रस्ट के प्रमुख के रूप में अपने अनुभवों को भी आधार बनाते हैं। विशेषकर तब जब वे जे०आर०डी० टाटा और अज़ीम प्रेमजी जैसे सहिष्णु व्यावसायिक व्यक्तित्वों के बारे में लिखते हैं जिनको वे व्यक्तिगत तौर पर जानते हैं।
उचित ही है कि इस किताब के व्यक्तित्व वाले खण्ड की शुरुआत एक समकालीन संस्था ‘द बिल एण्ड मेलिण्डा गेट्स फाउण्डेशन’ की कहानी से हुई है। बिल गेट्स और वॉरेन बफ़ेट द्वारा शुरू की गई यह संस्था विश्व की सबसे धनी निजी संस्था है। जिसका मकसद है सुविधाहीन लोगों में फैले बीमारियों जैसे मलेरिया, टी०बी० को विश्वव्यापी रूप से हटाने की कोशिश करना, क्योंकि ‘हर जीवन की कीमत समान है।
रुस्सी ने इस बात को सामने लाने का काम किया है कि उन सभी व्यवसायिक व्यक्तित्वों ने उसी ऊर्जा और सोच के साथ रचनात्मक फ़िलॉसफी का अभ्यास किया है जैसा कि उन्होंने अपने व्यापार में किया था। इनका मकसद केवल अपार सम्पत्ति जमा करना नहीं बल्कि उनका उपयोग समाज के लिए करना है। इस सन्देश को दुनिया के सारे धनवानों में फैलाना ज़रूरी है। ताकि वो इसे अपनाये। ख़ासकर इस समय सारी दुनिया में असमानता के बढ़ने के कारण पूँजीपति और पूँजीवाद निम्न स्तर पर है।
रुस्सी कहते हैं इस किताब का उद्देश्य उन लोगों को प्रेरित करना है जो कारनेगी, जमशेदजी टाटा और उनके पुत्र की तरह धनवान हैं ।
मुझे आशा है कि इस पुस्तक को बहुत सारे पाठक मिलेंगे।
- रतन. एन. टाटा
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